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शुक्रवार, अगस्त 02, 2013

                         ** महर्षि संडिल्य**                                       

                                कुल परिचय /ब्रजभूमि महात्म   

              *शर्स्ती कर्ता भ्रह्मा जी कै मानश पुत्र अंगीरा जी के बन्सो उद्ब्हब महारिशी

                     संडिल्य जी ने यह प्रसंग राजा परीछित को प्रश्न करने पर सुनाया *




*महारिशी बोले राजन हिमगिरी कै अपने आश्रम में पञ्च रात्र भक्ति मार्ग के
द्वारा अपने आराध्य की आराधना करता था मेरा यह पवित्र निर्जन प्रदेश मुझे
अत्यंत प्रिय था राजन मुझे भ्रह्म लोक से परम पिता का सन्देश प्राप्त हुआ में
जव भ्रह्म लोक पंहुचा तो राजन मुझे अत्यंत खेद हुआ जब देव शिरोमणि भ्रह्मा जी
ने मुझको पुरोहिती करने की आज्ञा प्रदान की वह भी किसी वेदज्ञ ब्रह्मण के कुल
की नहीं किसी राजा की भी नहीं किसी सामान्य छत्रिय की भी नहीं गोपो की राजन
में कदाचित हि क्रोध कर पाता हु भक्ति सूत्र के कर्ता को प्राणी मात्रा में
अपने आराध्य के दर्शन न हो तो किशे होंगे आवेशित विचार हुआ क्या परम पिता समझ
ते है की उनको कोई श्राप नहीं दे सकता ? किन्तु वे संकल्प की भासा जानने वाले
मेरे अंत करण के भाव को पहिचान गए और बोले वत्स अपनी उतेजना शांत कर के मेरी
बात सुन तो लो उन्होंने अत्यंत स्नेह से मुझको समझाया पुत्र जिस लोभ के कारण
बसिस्ठ जैसे ब्रह्मरिसी को पोहोहित्य स्वीकार्य कराया वह पुनीत अवसर पुनह आने
वाला है तुम एक बार ब्रज चले जाओ मुझे आशा है की तुम इस के लिए मेरा आभार हि
मानोगे राजन जव में ब्रज मथुरा मंडल मे आया मथुरा में ब्रस्नी बंस का शासन था
यह बंस देव,वेद,ब्राह्मणों में बहुत स्रधालू रहा है किन्तु मुझे तो मथुरा में
रहने का आदेश हि नहीं था परम पिता जानते थे की नगर कितना भी पुनीत तीर्थ हो
मेरे योग्य नहीं हो सकता मुझे तो ब्रह्दवन (महावन) में स्तिथ गोपो के आवास
गोकुल में जाने का आदेश प्राप्त था वत्स में गोकुल पहुचते हि चकित रह गया
ब्रह्म लोक से चला था तो नहीं जनता था की धरा का कोई अंचल मेरे आश्रम अधिक
पुनीत हो सकता है यह वैसे परम पुरुस के अवतरित होने की सुचना ने मेरे मन को
पोरोहित्य के लिए प्रलुब्ध कर दिया था तधापी मेरा मानस बहुत उलछन में था
परात्पर पुरुष का अवतरण इस मन्वंतर की अट्ठाईसवि चतुर्युगी में होने वाला है
यह देवताओ में मुनिओ में सभी को ज्ञात थी यदुकुल का पुरोहित होने का सोभाग्य
भगवान आशुतोष अपने परम प्रिय सिष्य महामुनि गर्ग को प्रदान कर चुके थे भगवान
यदु कुल में जन्म लेने वाले है तो गोप पुरोहित होने में यह शुख मुझे कैसे
प्राप्त होगा में समझ नहीं पाता था किन्तु परम पिता के अस्वासन पर में यहाँ
आया था राजन में अपने इस मनो मंथन में नहीं होता पहिले हि चकित रह जाता यह
गोकुल यह ब्रज भूमि क्या इस धरा का हि भाग है ? यह कण कण से प्रकाशित आनंद का
भाव अपने हिमगिरी कै आश्रम की याद मुझे कहा से आती ब्रह्म लोक जहा से में अभी
अभी आया था वह भी तुच्छ प्रतीत हुआ मुझको यह श्री हरी का नित्य धाम धरा पर कब
प्रकट हो गया मुझे ज्ञात नहीं था इस दिब्य धाम के तो किसी स्वर्थी **का** भी
पुरोहित होने को में प्रस्तुत हु मुझे तो गोप नायक का पुरोहित होने का आदेश
प्राप्त था
परीछित तुम तो सम्राट हो प्रथ्वी के दुशरे स्थान तीर्थ भी तुम ने देखे है अब
ब्रज आये हो श्री कृष्ण चन्द्र ने गर्भ में तुम्हारी रछा की है तुमको भी इस
भूमि की बास्तविकता को समझ ने में समय लग सकता है किसी साधारण ब्यक्ति की तो
बात हि क्या है
राजन में भली प्रकार यह जनता हु की अपने नित्य अराध्य की भूमि में आकर ब्यक्ति
की क्या अवस्था हो जाती है तुम यह ब्रज में आकर जान गए होगे
परीछित गद गद स्वर मै बोले भगवान ब्रज की समता नहीं त्रिलोकी मै यह तो सृस्ती
के भाल का सोभाग्य बिंदु है
तुम सत्य कहते हो सम्राट संडिल्य भी गद गद स्वर में बोले जव कोई इस ब्रज धरा
की वास्त विकता को जान जाता है तो यह भी जान जाता है यह ब्रज भूमि श्री हरी का
हि श्री अंग है और वृन्दावन उनका हिर्दय
राजन में जव स्वयं को सयमित कर कै गोकुल कै समीप पंहुचा वहा के
तरु,लता,पशु,पछि,यहातक की छोटी सी पिपीलिका(चीटी) भी जहा नेत्र ले जाये वहा थम
से जाते थे मेरी अवस्था ऐसी थी जैसे कोई दुर्गंधित स्थान का वासी सहसा हि
पुष्प उधान मै पहुच गया हो जहा का सोंदर्य उसे अपने हि पास स्थिर रहने को विवस
करता हो राजन मुझे गोकुल मै सामान्य होने में समय लगा कई दिनों तक केवल फल
आहार किया यमुना तट पर ध्यान किया इस दिब्य धरा के किसी मानव निवासी तक पहुचने
से प्रथम यह आबस्यक था की में इस दिव्यता को सहन करके सामान्य व्यबहार में सछम
हो जाऊ मेने अपने को जब इस लायक बना लिया तो गोकुल मै पहुचा इन गोपालो में
बहुत से स्वाभाविक साद गुण है यह अब में जनता हु यह तो बहुत
श्रद्धालु,वीर,उदार जाती है द्रण प्रेम का बंधन,संगठन इनके रक्त मै बसता है गौ
सेवा ने इनको सब प्रकार से पवित्र कर दिया है और इस सेवा से प्राप्त सुध्रण
शरीर उत्तम स्वस्थय इनको सहज हि प्राप्त है वेद,ब्रह्मण,देव,संतो और गौओ के
प्रति इतनी सर्धा सम्मान,सेवा की तत्परता मेने कही देखि तो क्या सुनी भी नहीं
थी यहाँ का प्राक्रतिक सोंदर्य तो पहले से सी सर्वोपरी था इनका निश्छल ब्यबहार
भी अयत्र कही दुर्लभ है मुझे देखते हि गोपालो ने करो का कार्य छोड़ा और दोड पड़े
- गोप नायक पर्जन्य ने समीप आकर सस्तांग प्रणाम किया आसन दिया आदर पूर्वक इस
प्रकार पूजा में लग गए की में स्वयं भी कभी कभी हि अपने आराध्य की अर्चना इस
प्रकार कर पाता हु सरधा और सावधानी की यह सीमा देखकर राजन तव बड़ा आश्चर्य हुआ
मुझको पर अब नहीं होता है प्रत्येक गोप भाग आया वन से यह सुनकर की गोकुल में
कोई मुनि आये है एक दुशरे को हांक लगा कर बुला लिया इन्होने गोवर के सने कर
शीघ्रता से धोये गए बर्धा,युबती और बालिकाए सब गोपिया आ गयी वहा पर बच्चो को
भी चरणों में रखा उन्होने सबको मेरे चरणों में मस्तक रखना था और सब कुछ न कुछ
उपहार स्वरूप लेकर आये थे उस दिन हि मुझको इतनी दछिना प्राप्त हुई की गड़ना
करना सम्भब नहीं था कितने हि वस्त्र,मर्ग चर्म,अन्न,स्वर्ण,गौ में सब चकित देख
हि सकता था मुझे तो सबके प्रणाम के फल असिर्बाद में हि पर्याप्त समय लगा इस सब
के पूर्ण होने पर मेने गोपनायक से निवेदन किया की वह सब को प्रसाद वितरित करा
दे में भला इन पशुओ का धन का क्या करूँगा किन्तु अपने हि मनो मंथन में मग्न वे
इस पर ध्यान न दे पाए और मेरे चरणों में मस्तक रख कर बड़ी दीनता से कहा प्रभु
हमारे गोप समाज के भगवन महारिशी कव अब इतने अधिक गोपो की पुरोहिती करने में
असुबिधा का अनुभब करते है सभी गोप ग्वाल कर जोड़े खड़े थे सबके नेत्रो की याचना
गोप नायक के स्वर से प्रकट हो रही थी पिता के आदेश से में जब यहाँ आया तो
हमारे मथुरा के कुल के भगवन महा मुनि गर्ग ने भी अपनी विवशता जाता दी तव हि से
श्री हरी से नित्य प्राथना करता हु की वे हमें पूजा अपने प्रिप कोई वेदज्ञ
ब्रह्मण प्रदान करे में जनता हु की यह प्रार्थना करना बहुत बड़ी ध्रुसटा है
किन्तु हमें सोभाग्य प्राप्त हो जाये तो हम सब सदा आपके विनीत दाश रहेंगे राजन
जो बात कहने में स्वयं हि यहाँ आया था वह गोपनायक ने बड़ी विनम्रता से कही उसी
दिन मेरे द्वारा यमुना तट के निर्दिष्ट स्थान पर पर्णकुटी तैयार कर दी गयी गोप
तो बहुत बड़ा आश्रम हि बना देने को उत्सुख थे उनको किसी प्रकार रोका मेने इतने

पर भी उन्होने तुलसी कानन पुष्प उधान तो लगाए हि ओर उस ओर पशुओ का आना रोक
दिया गया आश्रम में मैंने पूजा के लिए एक आश्रम धेनु रखने का निर्णय किया उस
कामधेनु की भी कोई सेवा का अवशर गोपो ने मुझे कभी नहीं दिया परीछित संडिल्य की
गौए तो प्रत्येक गोप की गोस्ठ में पर्याप्त मात्रा में थी उनका भी घृत सावधानी
से मेरे पास पहुचया जाता था जो मुझे सभी पर्वो पर बर्हत यज्ञ करके हि व्यय
करना पड़ता था कुछ हि समय में वहा बहुत से मुनि गण आकर बसने लगे में चाहता था
की कम से कम यग्य आदि के लिए घृत सी सेवा उनकी में करता रहू किन्तु यह अबसर भी
मुझे प्रप्त नहीं होता था सब गोप बर्ध,बालक तक सब हमारे आश्रमों की सेवा में
तत्पर रहते थे और बहुत कम बोलते थे किन्तु आश्रमों में कब कहा कैशी सेवा की
आबस्यकता है बालको को भी समझते देर नहीं लगती थी*
परीछित में जिस समय मथुरा आया था उस समय मथुरा में वृस्नी बंसी देब मिड जी का
शासन था उन्होने दो विवाह किये थे इनकी एक पत्नी खात्तिर्य कन्या थी उनके
पुत्र सुरसेन जी के पुत्र वासुदेव जी के पुत्र के रूप में भगवान अवतरित हुए
देव मिड जी की दूसरी पत्नी एक गोप कन्या थी उनके पुत्र पर्जन्य जब युबा हुए तो
इनका विवाह गोप कन्या वरीयसी के साथ हुआ तब देव मिड जी ने अपने इस पुत्र को
मथुरा का शम्पूर्ण गोंऊ धन के साथ इनके पालक गोपो सहित यमुना पार महावन में
बसने का आदेश दिया तब से पर्जन्य गोप नायक होकर गोकुल में रहने लगे और में
उनका पुरोहित होकर गोकुल के समीप यमुना किनारे वन में रहने लगा
राजन मेरे आने के बाद गोप नायक की पत्नी वरीयसी ने पाच पुत्र और दो कन्याओ को
जन्म दिया पुत्रो का नामकरण मेने किया प्रथम उपनंद द्वितीय अभिनंद जिनका दूसरा
नाम महा नन्द भी अधिक प्रचिलित हुआ तृतीय पुत्र नन्द चतुर्थ सन्नद और पंचम
पुत्र नंदन इसी प्रकार माँ ने दोनों पुत्रियों का नाम नंदनी और सुनंदा रखा
राजन में जन्म से एकांत वासी हु किन्तु  गोकुल आकर मेरे बेभब की कोई सीमा न
रही यह दूसरी बात है की मेने अपने आश्रम में कभी धन आदि रखना स्वीकार्य नहीं
किया किन्तु मुझे प्रत्येक संस्कार और पर्वो पर अपार धन आदि बस्तुये प्राप्त
होती थी और मेरे समीप के भी नहीं अयत्र से आने वाले ब्रह्मण भी मुझसे कुछ लेना
नहीं चाहते थे और लेते भी क्यों ? उन्हे गोपो का अपार दान स्वयं हि दान करने
को प्रेरित कर देता था इतना हि बहुत है  की गोप नायक ने हम ब्राह्मणों के धन
की सह्माल स्वीकार्य कर ली थी हम सदा हि श्री हरी से विनती करते रहते की कोई
कुछ लेने वाला प्राप्त हो जाये पर यही गोकुल में दुर्लभ था जिस दिन भी हममे से
किसी को किसी अतिथि का सत्कार करने का अबसर मिल जाता तो यह  हम सन्यासियों में
भी चर्चा का विषय हो जाता गोप राज पर्जन्य और उनके सभी गोप अपनी सारी संपत्ति
भी हमारी हि मानते थे और उन स्र्रधाकी मुर्तियो की कल्याण की कामना हमारे मन
में बनी रहती थी राजन यह आश्चर्य की बात नहीं प्रेम तो भगवान् को भी बस में कर
लेता है में तो सहज स्वभाब का ब्रह्मण हि हु
परीछित गोप जाती में सगाई तो कभी कभी बच्चो के जन्मते हि हो जाती है विवाह के
लिए भी अधिक उम्र की प्रतिच्छा नहीं की जाती है ब्रज पति के पुत्रो का विवाह
भी शीघ्र हि हो गया दोनों कन्याये भी उत्तम वारो को उन्हने व्याह दी राजन इतना
लम्बा काल मनो पालो में व्यतीत हो गया और कभी कभी मुझको अपनी युगों आयु पर
दुखी होना पड़ा है जब मेरे साधारण आयु के यजमान मरण उन्मुख होते है  जिस से
में बहुत लम्बे काल तक बंचित रहुँगा ब्रद्धा अबस्था समस्त वासनाओ को सहज में
हि नस्ट कर देती है जिनको जीतने हम मुनिओ को कठोर श्रम करना पड़ता है कर्म
इन्द्रियों की सक्ती कम होते हि अंतर मुखता स्वतः हि सिद्ध हो जाती है सत्य है
मर्त्यु तो देह के बन्धनों की मुक्ति हि है  स्वयं बने रहो और प्रिय जानो का
वियोग सहन करो यह बहुत कस्ट कर है में इसे अछि प्रकार अनुभब करता हु महारिसी
संडिल्य अत्यंत गंभीर हो गए इन ज्ञान विज्ञानं निधान को भी यह ब्याकुलता इन के
प्रेम के हि कारण है दो पल रुक कर महारिसी ने कहना प्रारभ किया मुझसे पर्जन्य
ने अनुमति ली और मेने प्रसन्नता पूर्वक अनुमोदन कर दिया जब पुत्र योग्य हो
जाये तो पिता का कर्तब्य है की उसे संसारिक दयित्ब देकर स्वयं भगवत भजन में
लगे युवा पुत्र को अपने पराधीन रख कर अधिकार की भोग लिप्सा ब्यक्ति को बंधन
में डालती है संतान के उचित बोधिक विकाश में भी बाधक और अनेक बार पिता के
प्रति संतान के आदर को भी कम कर देती है ब्रज पति ने मेरा आदेश पाकर ब्रज के
सभी प्रमुख गोपो को एकत्र किया
ब्रजराज का अधिकार उत्तराधिकार पर नहीं चलता जो सर्व मान्य हो वह ब्रज राज यही
प्रथा थी पर्जन्य के पुत्रो में सबसे बड़े पुत्र उप्नंद सब प्रकार से योग्य तो
थे किन्तु दायित्व के निर्वाह में उदासीन थे वे केवल उत्तम सम्मति हि दे सकते
थे द्वतीय पुत्र महानंद भी उदासीन स्वाभाव के थे उनको स्वयम अपने घर और गौशाला
की स्तिथि का ज्ञान नहीं रहता था संतोषी,भगवतभक्त,साधु सेवी थे वे यह दायित्व
तो मध्यम कुमार नन्द हि ले सकते थे उनके दोनों छोटे भाई सदा उनके आज्ञा पालक
थे वर्तमान में भी नन्द हि पिता के समस्त कार्यों को संचालित कर रहे थे उनको
गोपो की गौशालाओ की सभी की चिंता रहती थी उन्होने पहले से हि सब कुछ सहमल रखा
था सभी गोप उनका सम्मान भी करते थे उस दिन पर्जन्य ने सभी गोपो की अनुमति ली
और अपनी पगड़ी अपने मध्यम कुमार के मस्तक पर रख दी नन्द उस दिन ब्रजपति हो गए
यसोदा ब्रज रानी राजन यह उत्सब अब भी में नेत्रो के सम्मुख मुझको दिखाई देता
है उस दिन गोपो ने गोकुल में सारी पुरानी मर्यादाये तोड़ दी मुझे ज्ञात हुआ था
की इस अबसर पर कुल पुरोहित को एक धधि पात्र उपहार स्वरुप देने की प्रथा थी और
गोकुल के ब्रजपति को बरशाने के अधिपति को भेट भेज कर उनसे अपने पद की
स्वीक्रति प्राप्त करनी होती है किन्तु इस बार तो बरशाने के अधिपति माहिभानु
जी स्वयं अपने कुमार ब्रसभानु के साथ गोकुल पधारे थे उनके कुमार ब्रसभानु नन्द
के सह पाठी तो थे हि धनिस्ट मित्र भी थे पर्जन्य ने माहिभानु जी से अनुमति का
निवेदन किया तो वह खड़े  होकर बोले मित्र नव ब्रजपति का प्रथम अभिनन्दन करने का
अधिकार पहले मेरा स्वीकार करो यह तो आप हि का पुत्र है पर्जन्य विनीत भाब से
बोले सोतो है महिभाणु द्रण स्वर में बोले किन्तु इनकी पगड़ी पर प्रथम किरीट
मेरे कर देंगे और उपहार अर्पण का प्रथम अबसर ब्रसभानु को दिया जायेगा आप
सर्वमान्य है  पर्जन्य को कहना पड़ा आप जो आज्ञा करेंगे हम सब स्वीकार्य हि
करेंगे अब बिरोध कोई कैसे करता नन्द राय की पगड़ी को हंस पीछ से निर्मित उज्वल
किरीट से माहि भानु जी ने अलंकृत किया यह अद्भुद सम्मान दान होते हि नंदराय ने
हम सब ब्राह्मणों को प्रणाम किया अपने पिता को प्रणाम करने के बाद माहि भानु
जी के पदों में झुके तो उन्होने अपने पुत्र को संकेत कर दिया ब्रसभानु जी के
पदों में झुकने से पहले हि नन्द ने उनको हिर्दय से लगा लिया महिभाणु जी गद गद
हो गए वत्स आज से तुम्हारे इस अनुज की सुरछा भी तेरे ऊपर रही इस प्रकार गोकुल
का ब्रजपति अन कहे हि समस्त ब्रज का अधिस्वर हो गया और उस दिन गोपो ने जो
उपहार हमको अर्पित किये वे किसी राजा के राजसूय यज्ञ में भी कभी अर्पित किये
गए होंगे परीछित इतना प्रेम तो अन्य कही प्राप्त होना असम्भब है प्रत्येक गोप
में ऐसा उत्साह था की जेसे वह स्वयं हि आज ब्रजपति हो गया हो और प्रत्येक
ब्रधा गोपी को यसोदा अपनी हि पुत्र बधू लगती थी सब उसे सजाने में अलंकर देने
में जुटी थी और वह संकोच मयी सभी के पदों में अंचल रखकर प्रणाम हि कर सकती थी
जो बड़ी थी वह भी जो छोटी थी वह भी आज अपनी सम्पूर्ण कामना पूरा कर लेना चाहती
थी मनुष्य का इतना प्रेम मेने कभी अपने सब से प्रिय के लिए भी कही सुना नहीं
था जो आज नेत्रो के सम्मुख था उस दिन यह भी देखा मेने की ब्रजेस्वर को कितना
उदार तथा सावधान होना चाहिए नन्द राय ने अपने दोनों अनुजो को बुला कर कुछ समझा
दिया और यही किया यसोदा ने भी उसने अपनी दोनों देवरानियो के साथ दोनों ननदों
को कुछ कहा उनके कानो में और गोपो को गोपियों को बरसाने के अधिस्वर को सब को
यह बात  उनके घर पहुचने पर ज्ञात हुई की उनके पहुचने से पहले हि ब्रज पति और
ब्र्जेस्वारी के उपहार पर्याप्त मात्रा में उन के ग्रहों तक पहुच गए है उस दिन
मुझको और सभी ब्राह्मणों को प्रत्येक गोप ने दान किया और गोपो के किये दान को
हम उन्ही के यहाँ रखने के अभ्यासी थे किन्तु उस दिन वह आश्रम लाना पड़ा और यह
इतना अधिक था की उसको यज्ञ,दान आदि में ब्यय करने में हमको पर्याप्त समय लगा
यह समारोह समाप्त हुआ किन्तु हमारे श्रेस्ठ यजमान से हमारा वियोग हो गया
पर्जन्य ने विरक्त होकर बन को प्रस्थान किया और यही किया उनके मित्र महिभाणु 
ने भी उन्होने अपने कुमार को उत्तरा अधिकार दे दिया परीछित कितनी बिडम्बना थी
यह की में अपने हिमांचल की तपो भूमि त्याग कर गोकुल आया था और यह ब्रजपति जो
मुझसे वय में बहुत अधिक अल्प थे वैराग्य प्राप्त कर बन को चले गए में उन के
बियोग में  बिधाता के इस बिधान पर उस दिन अप्रसन हि हुआ था मुझको इतनी आयु
देकर उन्होने यहाँ भेजा तो क्या इन प्रेमी जानो को स्थिर तारुण्य नहीं दे सकते
थे दे तो यह में भी सकता था किन्तु संसार से विरक्त होकर सर्वेश्वर की
प्राप्ति हि मनुष्य का सर्वोत्तम कर्तब्य है हिर्दय से इस को मानने वाला में
इस पथ के पथिक की बाधा नहीं बनना चाहता था में जिस के दर्शन पूजन के लोभ से
यहाँ पुरोहित बनने आया था इनको अपना पूर्वज बनाने वाले है यह बात भी मेरे लिए
कुछ करने में बाधक थी उन सर्वेस की इछा हि पूर्ण होनी चाहिए मेने हि नहीं पुरे
ब्रज ने प्रत्येक जन ने यहाँ तक की गयो ने भी यह अनुभब किया की
प्रेम,सरधा,सत्कार साबधानी सब में पुत्र पिता से बहुत आगे है  नव ब्रजेश पिता
से कही अधिक उदार,विनम्र और सेवा परायण है पर्जन्य भी ब्रजपति थे यह सब भूल
जाते अगर नंदराय उनके पुत्र न होते लगता था की ब्रजेस्वर सब्द जेसे नंदराय में
समां गया हो और ब्रजेस्वरी यसोदा में में ब्रज में तब आया तब पर्जन्य भी युबा
थे मेने उनके पुत्रो के सभी संस्कार कराये अब उनमे से मध्यम कुमार ब्रजपति थे
बचपन से हि इन सिशुओ का मेने पालन किया था उनको बहुत सी सिक्छा दी थी अब तो वह
मेरे प्राण बन चुके थे और में उन का पुरोहित हि नहीं पिता भी था अपने यजमान की
लोकिक पारलोकिक की चिंता पहले से हि रखने वाले को पुरोहित कहा जाता है उस के
हित के प्रति सचेत रहना सदैव कल्याण की कमाना करते रहना यही पुरोहिती का धर्म
है और इसमें भी नंदराय जैसे यज मान जो बचपन से हि अपने सुख सम्मान के प्रति
उदासीनता रखते हो उन के प्रति चिंतित होना स्वाभाविक हि है नन्दराय सब की
चिंता में सदा साबधान रहते पर उन की चिंता न उनको थी न यसोदा को अब इन के
परलोक की चिंता तो में क्या करता इन के परलोक का परम आधार हि तो मुझको यहाँ
पुरोहित बनाके लाया था किन्तु इनके लोक की चिंता करने में भी में अपने आप को
असमर्थ हि पाता था इतना स्र्धालू सेवा परायण यजमान युवा से तरुण हुआ और ब्रद्ध
होने को आ गया किन्तु संतान हिन् था संतान हिन् थे उसके सब भाई लगता था की परम
पिता ने यह कलंक लेने को हि मुझे गोकुल भेजा था और मेरे लिए यह असह था किन्तु
इस का कोई उपाय भी मेरे पास नहीं था बहुत से बिद्वान ज्योतिषी मेरे परिचित थे
किन्तु वह ग्रहों की गड़ना से जो नहीं जान सकते थे वह में ध्यान करके हि सहज
जान सकता था किन्तु ध्यान,विज्ञानं,गृह गड़ना कुछ भी तो कम न आ सकी जिस से कुछ
ज्ञात हो पाता की वह कब यसोदा के अंचल में खेलेगा में जब भी नन्द पुत्र के
विषय में ध्यान करता निर्विकल्प समाधी को प्राप्त हो जाता और एक चिन्मय आनंद
के सिबाय कुछ भी प्राप्त न कर पाता
यह तो नन्द नंदन के प्रकट होने के बाद हि ज्ञात हुआ की गृह गड़ना,ध्यान से परे
वह जब स्वयं हि स्वेच्छा से अंतर मान में प्रकट होना चाहे तो प्रकट होते नहीं
तो निर्विकल्प समाधी हि प्राप्त होगी राजन ब्रजेस्वर को किसी पुत्रेस्ठी आदि
सकाम अनुष्ठान को भी प्रेरित नहीं किया जा सकता था प्रेम परवस मेने अपने भक्ति
मार्ग के नियम के बिरुद्ध कुछ कहना भी चाह तो नन्दराय कह देते श्री नारायण की
जो इच्छा हो उन मंगल मय का बिधान हमारे लिए मंगल हि होगा में भले हि पुरोहित
हु पर निष्काम भक्ति का आचार्य भी हु इस लिए अपने निष्काम यजमान को किसी सकाम
अनुष्ठान की आज्ञा नहीं दे सकता था में जनता था की वह आज्ञा नहीं टलेगा पर जिस
भक्ति मार्ग की मेने जीवन भर दुमदुमी बजायी थी उसके नियम में तोड़ भी देता पर
मेरा यह यजमान मुझे ऐसा करने नहीं देना चाहता था में स्वयं और जितने भी मुनिगन
यहाँ आ बसे थे जप,तप,अनुष्ठान कर रहे थे हम जो सारे संसार को निष्काम उपासना
का उपदेश करते नहीं थकते थे सब के सब सकाम उपासना और प्रार्थना में लगे थे
राजन हम यही कर सकते थे और कर रहे थे वर्षो तक हम ने यह किया हमारे
यज्ञ,जप,तप,ब्रत सबका एक हि उदेश्य हो गया ब्रजराज को तनय प्राप्त हो पर वह जो
उनका तनय होकर आने वाला था वह तो सर्व स्वतंत्र किसी के बस में आने वाला नहीं
था ब्रज के समस्त गोप गोपिया ब्रत प्राथना में लगे थे की उनको युवराज प्राप्त
हो किन्तु हम वेदज्ञ ब्राह्मणों के प्रयत्न सफल नहीं हो रहे थे तो वे तो
असिछित या अल्प सिछित सरल सीधे स्र्र्धालू घर और गौओ को लेकर ब्यस्त रहने वाले
लोग थे परीछित संभब है में यहाँ भूल कर रहा हु उन प्रेम धन को तो किसी की
बिद्या,तपस्या प्रभाबित नहीं कर सकती है किन्तु इस गोप और गोपिओ के प्रेम ने
उनको केसे नचाया यह मेने प्रत्यछ देखा वह प्रेम पर्वस होकर इन्ही की प्रार्थना
से द्रर्वित होकर हि धरा पर प्रकट हुये क्योकि वह सुर्र्ती के सस्वर स्त्रोत
भले हि अन सुने कर दे गौओ की सप्रेम हुक्रती पर बोलते मेने उन्हे देखा है में
यह निश्चय पूर्वक  कह सकता हु की हम तपस्वी साधन संपन्न मुनिओ  की प्राथना
ब्यर्थ हो गयी होती और ब्यर्थ हि थी किन्तु उसके अपने भोले भले गोप गोपिया उसे
पुकार रहे थे अत वह अपने नित्य धाम गोलोक में स्थिर नहीं रह सकते थे ब्रज धरा
उसे पुकारे तो वह ब्रज युवराज अवतरित हुए बिना कैसे रह सकता है अत हमारे मध्य
भगवती पूर्णमासी अकस्मात हि आश्वासन बन के पधारी और उनके साथ पधारे मधुमंगल
सछात जगदम्बा और गणेश हि जैसे यह रूप धर कर ब्रज के कल्याण को पधारे हो इतनी
तेजस्व्स्ता की बड़े बड़े मुनीन्द्र योगेन्द्र भी अन्न्जली बाधे खड़े रह जाते
चरणों ने प्रणाम को उत्सुक हो जाते पर वह ममता मई किसी को इसका अबसर भी नहीं
देती थी वह तो बिना मागे हि आसिर्बाद की वर्षा करने लगती है और उनके अंक में
सबको स्थान है सबकी समस्याओ का समाधान है  ब्रज की बालिकाओ को भी उनसे संकोच
नहीं होता था*
 


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